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मानवीय संबंधों का उत्सव हैं जयंतियां

२ अगस्त २००९

डॉयचे वेले की हिंदी सेवा इस वर्ष स्थापना की पैंतालीसवीं वर्षगांठ मना रही है. महेश झा नज़र डाल रहे हैं डॉयचे वेले के साथ काम के अपने वर्षों पर.

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तस्वीर: Liesegang/DW

विश्व इतिहास में ये पैंतालीस वर्ष आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्रांति के वर्ष रहे हैं. स्वाभाविक है कि उनका असर संस्थानों पर तो पड़ा ही है, लोगों पर भी पड़ा है. कभी खोज खोज कर लाया जाता था पत्रकारों को डॉयचे वेले की भाषाई सेवा में काम करने के लिए तो आज भारत से युवा पत्रकारों का विदेशों में निकलना आम बात हो गई है. दूरियां मिटती सी जा रही हैं.

Pukhraj Choudhary, Manasi Gopalakrishnan, Onkar Singh Janoti und Rati Agnihotri
तस्वीर: DW

नब्बे के दशक में मैं जब कोलोन आया, जहाँ पहले डॉयचे वेले स्थापना के बाद से ही स्थित था, तो संचार क्रांति अभी पालने में थी. भारत के लिए टेलिफ़ोन यहाँ भी सस्ते और आम नहीं हुए थे. अफ़सरों से पूछकर फ़ोन करना पड़ता था. हर महीने टेलिफ़ोन बिलों की जांच पड़ताल हुआ करती थी. टेलिप्रिंटरों का ज़माना समाप्त नहीं हुआ था और हर मेज़ पर कम्प्यूटर भी नहीं आया था. हिंदी लिखने के लिए टाइपराइटरों का ही इस्तेमाल हो रहा था. हममें से कई क़लम-काग़ज़ का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे.

टेलिफ़ोन सस्ते और सुलभ हुए तो रेडियो में टेलिफ़ोन इंटरव्यू का चलन शुरू हुआ. सामयिक मुद्दों पर भारतीय नेताओं और अधिकारियों के साथ टेलिफ़ोन पर बातचीत शुरू हुई. उनके लिए भी सब कुछ बहुत नया था, शुरुआती दिनों में अकसर परेशानी होती. मुलायम सिंह जैसे राजनीतिज्ञ हाँ ना के अलावा कुछ बोलते ही नहीं और लालू यादव जैसे नेता बोलना शुरू कर देते तो रुकते ही नहीं.

Old radio set, video still Altes Radiogerät Radioempfänger
तस्वीर: AP

उन दिनों की एक मज़ेदार घटना है, तत्कालीन विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के साथ एक इंटरव्यू. अटलजी अपने विराम वाले वाक्यों के लिए मशहूर हैं. विराम इतना लंबा कि इंटरव्यू करने वाले को शक़ होने लगे कि टेलिफ़ोन लाइन ठीक है कि नहीं. वह हलो हलो करे और अटलजी फिर से नया वाक्य शुरू कर दें. इंटरव्यू तो हुआ लेकिन अटलजी ने शायद ही कोई वाक्य पूरी तरह से पूरा किया.

जब अटल जी पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उनके मंत्रिमंडल में सिकंदर बख़्त को विदेशमंत्री बनाया गया. शपथग्रहण के दिन उनके साथ इंटरव्यू तय था. उन दिनों हमारा कार्यक्रम भारत में पौने नौ बजे रात में प्रसारित होता था. शपथग्रहण के बाद वे क़रीब साढ़े 8 बजे जब घर लौटे. हमारी तो हालत ख़राब. वे आएंगे कि नहीं, इंटरव्यू होगा कि नहीं और सबसे बड़ी बात कि यदि इंटरव्यू नहीं हो पाया तो वह दस मिनट भरेगा कैसे. हम प्रयास करते रहे, वे लौटे तो तुंरत हमसे बात की और यह इंटरव्यू उसी दिन प्रसारित हुआ. विदेशमंत्री के रूप में यह उनका पहला इंटरव्यू था.

डॉयचे वेले जैसे विदेशी प्रसारण केंद्रों में काम करने का एक फ़ायदा यह है कि विदेशी दौरों पर आने वाली शख्सियतों के साथ मिलने का मौक़ा मिलता है, उनसे बात करने का मौक़ा मिलता है. बिसमिल्ला खां, पं. जसराज या भीमसेन जोशी जैसे शख़्सियतों से अंतरंग बातचीत का अनुभव किसी भी पत्रकार के लिए भावनात्मक क्षण होते हैं और मुझे ऐसे अवसर मिले.

Themenbild Interview
तस्वीर: DW

लेकिन एक इंटरव्यू का मैं ख़ासकर ज़िक्र करना चाहूंगा. जया बच्चन बाल फ़िल्म संस्था के साथ जुड़ी थीं. अक्सर जर्मनी आया करती थीं. एक बार बर्लिन में मुलाक़ात हुई तो उन्होंने बताया कि 'अमितजी' भी आए हैं. मैं उनसे इंटरव्यू का लोभ संवरण नहीं कर पाया. तय हुआ कि मैं अगले दिन उनसे मिलने उनके होटल में जाऊंगा.

उनका दूसरा अवतार उस समय शुरू नहीं हुआ था. मैं लगभग दस सालों से जर्मनी में था. जर्मनी में न तो हिंदी फ़िल्मों का वीडियो मिलता था और न ही फ़िल्में आज की तरह लोकप्रिय हुई थीं. मुझे बहुत कुछ पता नहीं था कि उस समय का अमिताभ बच्चन क्या कर रहा था. अब जयाजी से तो पूछ नहीं सकता था. फ़ोन भी इतने सस्ते नहीं हुए थे किसी को भारत में फ़ोन कर कुछ पूछ लूँ. अगले दिन दो लोगों की बहुत मुश्किल भेंट होने वाली थी. मिले तो खुलकर मिले, पता चला हम दोनों की ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा दिल्ली के के. एम. कॉलेज से जुड़ा है. उसके बाद बात हुई और क्या बात उसकी!

1994 में जब डॉयचे वेले की ऑनलाइन सर्विस शुरू हुई तो हिंदी भी पीछे नहीं रहना चाहता था. उन दिनों कोई कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम नहीं हुआ करता था. हिंदी के सॉफ़्टवेयर पर भी सहमति नहीं हुई थी. उज्ज्वलजी संभवतः पूरे जर्मनी में अकेले व्यक्ति थे जिनके पास एम एस डोस पर चलने वाला हिंदी सॉफ़्टवेयर चीराइटर हुआ करता था. फिर विंडोज़ आधारित कुछ सॉफ़्टवेयर आए. किसी का कीबोर्ड ठीक नहीं होता था तो किसी का संयुक्ताक्षर.

1996 में त्रिनिडाड के विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने पहली बार लीप हिंदी सॉफ़्टवेयर देखा. यूं तो उसे ख़रीदने और डॉयचे वेले के सिस्टम के साथ सामंजस्य बिठाने में समय लगा लेकिन 1997 में हम पहली हिंदी वेबसाइट के लिए तैयार थे. बाद में माइक्रोसॉफ़्ट के सॉफ़्टवेयरों में हिंदी भाषा और लिपि को शामिल किए जाने के बाद तो वेबसाइट का काम बहुत ही आसान हो गया.

इन सारे सालों में हमारे श्रोता हमारे काम को नज़दीक से देखते रहे हैं. हमारा हौसला बढ़ाते रहे हैं. पत्रों के माध्यम से, ईमेल के माध्यम से और कार्यक्रमों के माध्यम से आपसे निकट संपर्क रहा है. हमें हमेशा इस बात का अहसास रहा है कि कार्यक्रम हम आपके लिए बना रहे हैं.

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तस्वीर: DW

और इसमें उन कुछ अप्रत्याशित भेंटों की भूमिका कम नहीं है, जो छुट्टियों के दौरान भारत में रहते हुए आपसे हुईं. कम से कम एक का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगा. मैं पटना से दिल्ली जा रहा था. पटना में ट्रेन के जिस कंपार्टमेंट में बैठा उसमें मेडिकल एसोशियेसन के पूर्व अध्यक्ष भी बैठे थे. हम बात कर ही रहे थे कि थ्री टीयर में ऊपर सोये व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि क्या मैं महेश झा हूँ. मैं हैरत में था कि आवाज़ की वजह से पहचाना गया था. लेकिन एक श्रोता से इस तरह अचानक हुई वह मुलाक़ात मेरे जीवन की यादगार मुलाक़ातों में से एक है.

जयंतियां मानवीय संबंधों का उत्सव होती हैं. यह बताने का अवसर कि इतने दिनों से हमारा आपका साथ है और यह कहने का मौक़ा कि आनेवाले वर्षों में भी हम आपका साथ चाहते हैं. हिंदी विभाग के पैंतालीस वर्षों के सफ़र में बहुत से युवा, वरिष्ठ और जाने माने सहकर्मियों का योगदान रहा है, और यह सफ़र जारी है. मुझे ख़ुशी है कि निरंतर बदलाव के दौर से गुज़रते उसके एक काल का मैं भी गवाह हूँ.

महेश झा