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बस से ओलंपिक स्वर्ण पदक की रिपोर्टिंग

११ अगस्त २००९

हिंदी कार्यक्रमों में खेल रिपोर्टिंग में विस्तार में खेल पत्रकार नौरिस प्रीतम का अनन्य योगदान रहा है. बता रहे हैं डॉयचे वेले के साथ काम के अपने अनुभवों के बारे में.

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तस्वीर: privat

12 अगस्त, साल 2004. रात के क़रीब आठ बजे थे. मैं घर से निकलने ही वाला था दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट जाने के लिए जहाँ से मुझे आधी रात के कुछ देर बाद एथेंस की फ्लाईट पकड़नी थी. तभी मोबाइल फ़ोन की घंटी बजी. हालांकि मैं अंधविश्वास नहीं मानता लेकिन क्योंकि भारत में आमतौर पर माना जाता है कि घर से निकलते समय किसी को टोका नहीं करते. इसीलिए मैंने भी सोचा की फ़ोन रिसीव न करूं. लेकिन फिर ना जाने क्यों आंख फ़ोन की स्क्रीन की तरफ चली गयी. और मैंने देखा की नंबर 49 की संख्या से शुरू होने वाला था -- ज़ाहिर है यह कॉल अंतरराष्ट्रीय ही होगी. बस इसीलिए फ़ोन ले लिया. दूसरी तरफ से बहुत साफ़ और सधी आवाज़ आई ``मैं जर्मनी में डॉयचे वेले से राम यादव बोल रहा हूँ.'' क्योंकि मैं जल्दी में था मैंने बस इतना ही कहा, `जी'. दूसरी तरफ से आवाज़ आई ``क्या आप ओलंपिक कवर करने जा रहे हैं? मुझे लगा की कोई जर्नलिस्ट किसी खिलाड़ी के बारे में मुझसे कुछ जानना चाहता है. लेकिन मेरे `हाँ' कहने पर यादव जी ने कहा ``क्या आप हमारे लिए भी कवर कर सकते हैं?'' जल्दी में मैंने यह भी नहीं पूछा कि आपको मेरा नंबर किसने दिया. मेरे हाँ करने पर यादव जी ने कहा कि एथेंस जाकर अपना फ़ोन नंबर दे देना. और बस कुछ ऐसे ही सिलसिला शुरू हुआ डॉयचे वेले से मेरे रिश्ते का.

क्योंकि मैं इन ओलंपिक खेलों को इंडियन एक्सप्रेस और बीबीसी हिंदी सर्विस के लिए भी कवर कर रहा था, मेरे पास बहुत काम था. लेकिन हर शाम बेसब्री से यादव जी के फ़ोन का इंतज़ार करता था और बराबर 15 दिन मैंने फ़ोन पर रिपोर्ट दी. मज़ा तो उस दिन आया जब पुरुषों की 100 मीटर का फाइनल था. खचाखच भरे स्टेडियम में बहुत शोर हो रहा था. और जैसे ही रेस शुरू हुई बॉन से फ़ोन आ गया. रेस तो 10 सेकंड से भी कम में खत्म हो गयी लेकिन मुझे खामोशी वाली जगह मिल ही नहीं रही थी. तभी सामने दिखा एक टॉयलेट ! बस जल्दी में उसी में घुस गया और किसी तरह रिपोर्ट दी. लेकिन जब बाहर निकला तो वहां खड़े एक पुलिस वाले से दो चार होना पड़ा. पुलिस वाले को शक था कि मैं कोई आतंकवादी हूँ जो टॉयलेट में छिप कर कहीं सुरक्षा के बारे में बता रहा था!

खैर खेल ख़त्म हुए और आखिरी दिन यादव जी ने कहा की दिल्ली से भी संपर्क में रहना. मुझे लगा मैंने ठीक ही काम किया है इसीलिए दिल्ली से भी काम करवाना चाहते हैं. और अच्छा तब लगा दिल्ली पहुंचते ही एक पुराने परिचित का गोरखपुर से फोन आया. बोले, अरे भाई तुम डॉयचे वेले के लिए कब से काम करने लगे हो? मैंने कहा आपको कैसे मालूम. तो वो बोले `अरे यार तुम्हें एथेंस से रोज़ सुन रहा था.'' मुझे लगा मैं तो स्टार बन गया!

फिर दिल्ली से भी फ़ोन पर रिपोर्ट देने का सिलसिला चलता रहा. यादव जी के साथ साथ एक एक करके कई और नाम मेरे व्यावसायिक जीवन से जुड़ने लगे. कभी महेश झा तो कभी उज्जवल भट्टाचार्य तो कभी अनवर जमाल और कभी सुनंदा राव. और फिर धीरे धीरे खेलों की रिपोर्ट के अलावा मजाक या फिर दिल्ली के मौसम पर भी बात होने लगी. और पता भी नहीं चला की जिन लोगों को कभी देखा भी नहीं उनसे कैसे इतनी दोस्ती हो गयी.

और जब पहली ही मुलाक़ात में प्रिया के साथ कनॉट प्लेस में लंच खाया तो लगा जैसे किसी बहुत पुराने दोस्त के साथ 2 घंटे बिताए हों. शायद यह डॉयचे वेले का ही कमाल था.

अक्सर ख़राब लाइन के कारण फ़ोन पर रिपोर्ट ठीक नहीं सुनाई देती थी. मैंने सोचा क्यों न कोई और जरिया सोचा जाये. क्योंकि मुझे आकाशवाणी दिल्ली पर हल्के फुल्के खेल कार्यक्रम करने का अनुभव था मैंने सोचा क्यों न अपनी रिपोर्ट रिकॉर्ड करके भेजी जाए? बस, दिल्ली के चांदनी चौक बाज़ार से 100 रूपये का माइक ख़रीदा और इंटरनेट से कूल एडिट डाउनलोड करके उसमें रिकॉर्ड करके इ-मेल करने लगा. हालांकि वो काफी भारी फाइल होती थी लेकिन यादव जी और बाकी साथियों ने बहुत साथ दिया और यह काम चलता रहा. और बाद में जब रिपोर्ट एफटीपी करने के लिए डॉयचे वेले से पासवर्ड मिला तब तो घर का बेडरूम एक मिनी स्टूडियो में ही बदल गया.

घर तक तो बात ठीक थी. मुश्किल तब पड़ती थी जब किसी ख़ास रिपोर्ट के लिए घर के बाहर फ़ोन आ जाता था. यूं तो दिल्ली के दिल कनाट प्लेस से मेरा घर महज़ 14 किलोमीटर दूर है लेकिन शाम को भारी ट्रैफिक की वजह से कभी कभी दो घंटे भी लग जाते हैं. उसका समाधान भी निकालना था. तो लैपटॉप के लिए एक इंटरनेट डाटा कार्ड ख़रीदा. कई दफ़ा मैंने निज़ामुद्दीन पुल पर साइड में कार लगा कर रिपोर्टें रिकॉर्ड की हैं और भेजी हैं. ऑडियो क्वालिटी अच्छी नहीं होती थी लेकिन रिपोर्ट भेजने का जो मज़ा आता है वो शायद किसी नशे से कम नहीं और मुझे ज़िन्दगी का यह सुंदर अनुभव डॉयचे वेले ही दिला सकता था.

बीजिंग ओलंपिक कवर करते हुए भी कुछ इसी प्रकार के अनुभव हुए. शूटिंग रेंज से मीडिया सेंटर तक का करीब 40 किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए अभिनव बिंद्रा के ओलंपिक गोल्ड मेडल की रिपोर्ट बस से भेजना एक ज़बर्दस्त अनुभव रहा.

एक और सुंदर अनुभव तब हुआ जब डॉयचे वेले ने मुझे दिल्ली में व्यापार मेले में काम करने का मौका दिया. मेले में कई लोग ऐसे आए थे जो हमारे कई साथियों जैसे कुलदीप कुमार, अनवर जमाल, उज्जवल भट्टाचार्य आदि की आवाज़ से वाकिफ़ थे. डॉयचे वेले के स्टॉल पर आते ही उन्होंने इन लोगों का नाम लिया जो सुनने में बहुत अच्छा लगा. लेकिन मुझे सबसे अच्छा लगा ग्रैहम लुकस से मिलकर जो अपने अच्छे स्वभाव और सादगी की वजह से दक्षिण एशिया डिवीज़न के प्रमुख कम एक सहयोगी ज़्यादा लगे. शायद यह अपनापन ही डॉयचे वेले के 45 साल का निचोड़ है. मुझे गर्व है कि मैं ऐसी संस्था से जुड़ा हुआ हूं.

नौरिस प्रीतम, नई दिल्ली