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नई-नई है तेरी रहगुज़र... !

११ अगस्त २००९

हिंदी कार्यक्रम की प्रातःकालीन सभा शुरू होने के बाद अनुभवी प्रसारक गुलशन मधुर ने अमेरिका से हमारी रिपोर्टिंग को मजबूत बनाया है. बता रहे हैं डॉयचे वेले के साथ जुड़े अपने अनुभव के क्षणों के बारे में.

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तस्वीर: DW

डॉयचे वेले की हिंदी सेवा पैंतालीसवां पार कर रही है और आप सहमत होंगे कि वर्षों के अनुभव की परिपक्वता उसके प्रसारणों में बाक़ायदा झलकती है. लेकिन साथ ही आप यह भी मानेंगे कि उम्र की प्रौढ़ता से उसके चेहरे की ताज़गी पर कोई शिकन नहीं आई है. बल्कि प्रसारणों में और निखार आता चला गया है.

कहने को डॉयचे वेले से मेरा संबंध केवल लगभग चार वर्षों से है, लेकिन लगता है कि यह जुड़ाव उससे कहीं पुराना है. मैं इसका सारा श्रेय हिंदी सेवा के प्रसारकों को देता हूं, जिनके स्नेह और आत्मीयता ने बॉन और वॉशिंग्टन के फ़ासले को कभी महसूस ही नहीं होने दिया.

आवाज़ की दुनिया से एक लंबे अर्से से वास्ता रहा है - पहले आकाशवाणी और फिर वॉयस ऑफ़ अमेरिका में काम करते हुए. अब की तरह उस दौरान भी आवाज़ ही श्रोताओं से संपर्क का माध्यम था. कभी-कभी किसी श्रोता से आमने-सामने मुलाक़ात का सुखद संयोग भी हो जाता था, लेकिन ऐसे अवसर न के बराबर होते थे, और इसीलिए उन क्षणों की यादें बहुत बहुमूल्य हैं, जो आज बरसों बाद भी रोमांचित कर जाती हैं. आवाज़ के रास्ते मुलाक़ातों का सिलसिला आज भी जारी है - डॉयचे वेले के माध्यम से. लेकिन आवाज़ के इस अनुभव में एक बिल्कुल नया तत्व जुड़ गया है. इसी के संबंध में अपने अनुभव की बात करना चाहता हूं. नया तत्व यह कि बॉन में स्थित इस प्रसारण-संस्थान के अपने सहकर्मियों से भी मुलाक़ात आवाज़ के माध्यम से होती है - टैलीफ़ोन पर बातचीत के रूप में. सुखद संयोग से ही, एक सहयोगी पुष्प रंजन जी से तब मिलना हो गया था, जब वह एक संक्षिप्त यात्रा पर वॉशिंग्टन आए थे. उनके साथ स्नेह और हार्दिकता के कुछ घंटे बहुत मीठी स्मृतियां छोड़ गए.

2005 में वॉयस ऑफ़ अमेरिका से सेवानिवृत्ति लेने के बाद वॉशिंग्टन से रिपोर्टिंग करने के सिलसिले में राम यादव जी से पहली बार टैलीफ़ोन पर संपर्क हुआ. उन दिनों हिंदी सेवा का कार्यभार उन्हीं के पास था. नई संस्था के अनजाने तौर-तरीक़ों को लेकर जो चिंताएं या सरोकार थे, यादव जी से बातचीत के बाद धुल गए. कोई अजनबीपन, कोई औपचारिकता नहीं. बाद में साथ काम करने के दौरान, सीधी-सहज बात करने वाले यादव जी को तीखी 'डैडलाइन' वाली घड़ियों में भी हमेशा बिल्कुल स्थिरचित्त पाया. प्रसारण के व्यवसाय में ऐसा साथ बहुत सांत्वनाजनक होता है. अब भी जब कभी उनसे बात होती है, वही सहजता, वही अपनापन महसूस होता है. यह इस पर कि उनसे कभी आमने-सामने मिलना नहीं हो पाया.

बाद में, जैसे-जैसे डॉयचे वेले के अन्य सहकर्मियों से संपर्क होता गया, आत्मीयता का यह अनुभव और गहरा होता चला गया. हिंदी सेवा के साथियों का व्यवहार जितना स्नेह-सम्मान भरा है, काम के प्रति निष्ठा भी उसी हद की है. एक उदाहरण ऐसे अवसरों का है, जब प्रिया एसेलबॉर्न, विकसित हो रहे किसी बड़े समाचार की रिपोर्ट, आने वाले कार्यक्रम के लिए तैयार करने के बारे में घंटों पहले आगाह करती हैं. ज़ाहिर है, आप भी अधिक चौकस हो जाते हैं और बेशक़, यह सतर्कता रिपोर्ट को अधिक भरपूर बनाने में सहायक होती है.

जब भी किसी ताज़ा घटना की रिपोर्ट देने के सिलसिले में संपर्क होता है, प्रसारकों के लिए वह समय बहुत व्यस्तता का होता है. लेकिन ऐसी घड़ियों में भी जो दो-चार क्षण बात करने के लिए मिल जाते हैं, वे साथियों के व्यक्तित्व का दर्पण बन जाते हैं. उज्ज्वल जी की बातों से भारत की और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर उनकी गहरी पकड़ का अनुभव भी होता है और कलाओं के बारे में उनकी सधी-संवरी रुचियों का अहसास भी. महेश जी ताज़ा समाचारों के बारे में हमेशा नितांत सजग दिखाई देते हैं. यों मैं यहां यह भी कह सकता था कि महेश जी समाचारों के मामले में 'अप-टू-डेट' दिखाई देते हैं, लेकिन लिखने की और प्रसारण की हिंदी में अकारण अंग्रेज़ी के यों ही बढ़ते चले जा रहे प्रयोग से अभी तक समझौता नहीं कर पाया हूं. बेशक़, 'दिखाई देने' का इस्तेमाल यहां व्यंजनात्मक है.

हिंदी सेवा में जिस तरह पुरानी और नई पीढ़ियों का संगम हुआ है, वह किसी भी प्रसारण संस्था के लिए एक मिसाल बन सकता है. रेडियो और टैलीविज़न के प्रसारण और पत्रकारिता के नए मुहावरे और तकनीकों की महारत के धनी युवा सहकर्मियों के साथ मिलकर काम करना एक तुष्टिकारक अनुभव है. अनवर जमाल, जोशी जी, अशोक जी, आभा मोंढे, सचिन गौड़, मानसी जी, ओंकार जी - सभी की आवाज़ें और अदायगी प्रसारण की अपनी-अपनी तरह की अलग शख़्सियतों की इंद्रधनुषी छवि प्रस्तुत करती हैं. शायद यही कारण है कि 45 की हो जाने के बाद भी डॉयचे वेले की हिंदी सेवा आज भी एक अनूठी ताज़गी का अहसास देती है.

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है

नई-नई है मगर तेरी रहगुज़र फिर भी

गुलशन मधुर, वाशिंग्टन