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डॉ. अंबेडकरः एक विरोध की चिंगारी

रिपोर्टःअशोक कुमार (संपादनः आभा मोंढे)२१ जनवरी २०१०

संविधान के शिल्पी डॉ. बीआर अंबेडकर 20वीं सदी की महान शख़्सियतों में गिने जाते हैं. लेकिन भारत के दलितों और शोषितों के लिए वह मसीहा हैं.

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तस्वीर: AP

14 अप्रैल 1891 को पैदा हुए अंबेडकर बचपन से ही जाति आधारित भेदभाव का शिकार रहे और शायद इसी ने उनके जीवन की दिशा भी तय की. उनके मातापिता का संबंध हिंदू महार जाति से था जिन्हें अछूत समझा जाता था. पिता ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे लेकिन आर्मी स्कूल में भी छुआछूत ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. दलित बच्चों को कक्षा से बाहर बिठाना, स्कूल के नल से पानी नहीं पीने देना और अपमान किया जाना आम बात थी. बचपन में इन बातों ने अंबेडकर को बहुत परेशान किया लेकिन वह ख़ुद को मज़बूत और मज़बूत करते रहे.

जीवन एक संघर्ष

1908 में अंबेडकर ने मैट्रिक की परीक्षा पास की जो किसी दलित बच्चे के लिए बड़ी बात थी. चार साल बाद उन्होंने राजनीति और अर्थशास्त्र में स्तानक की डिग्री हासिल की. इसके बाद बरोडा स्टेट की तरफ़ से मिली छात्रवृत्ति से उन्हें विदेश में पढ़ने का मौक़ा मिला. इस दौरान अंबेडकर ने अपनी ज्ञान की प्यास को खूब बुझाया. क़ानून, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का जमकर अध्ययन किया.

भारत वापसी पर अंबेडकर ने कई मोर्चों पर अपने आपको स्थापित करने की कोशिश की. एक तरफ़ उन्होंने अपनी वकालत शुरू की तो कॉलेज में पढ़ाना भी शुरू किया. साथ ही उन्होंने मूकनायक नाम से एक अख़बार भी निकालना शुरू किया. जिस भेदभाव और छुआछूत का सामना अंबेडकर को क़दम क़दम पर करना पड़ा, उन्होंने उसे ख़त्म करने लड़ाई लड़ने का मन बनाया और राजनीतिक आंदोलन के स्तर पर देश को लगभग बांट दिया. एक तरफ़ कांग्रेस और उससे भी कहीं बढ़कर गांधी थे जो छुआछूत और भेदभाव को ख़त्म करने की बात तो करते थे लेकिन वर्ण व्यवस्था को जारी रखने के पक्षधर थे. वहीं अंबेडकर वर्ण व्यवस्था को ही भेदभाव का बुनियाद आधार समझते थे.

तमाम विरोध और मुश्किलों के बीच अंबेडकर ने लोगों तक पहुंचने के रास्ते निकाले और उन्हें बताने की कोशिश की कि मौजूदा हालात को बदलना क्यों ज़रूरी है. उन्होंने नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश और महाड़ के चौदर तालाब से दलितों के पानी लेने पर लगी रोक हटाने के लिए मुहिम चलाई. अंबेडकर की इस अहिंसक मुहिम की हिंसक प्रतिक्रिया हुई. अंबेडकर ने मनु स्मृति को सार्वजनिक रूप से भी जलाया. ख़ुद अंबेडकर के शब्दों में 1931 और 1932 में मुख्यधारा में हर कोई उनसे नफ़रत करता था.

गांधी से टकराव

मुख्यधारा की राजनीतिक व्यवस्था से टकराव की मुख्य वजह शोषित वर्गों के लिए अंबेडकर की पृथक निर्वाचन व्यवस्था की मांग थी. कांग्रेस इस मांग की सख़्त खिलाफ थी. इसी वजह से दूसरी गोलमेज सभा में अंबेडकर और गांधी के बीच खूब टकराव हुआ. गांधी ने दलितों की तरफ से बोलने के अंबेडकर के दावे को ही चुनौती दे डाली. लेकिन ब्रिटिश सरकार को अंबेडकर की दलीलों ने संतुष्ट कर दिया और शोषितों को उनकी मांग के मुतबिक़ अलग निर्वाचन क्षेत्र दिए गए. वहीं इसके विरोध में गांधी यरवदा जेल में आमरमण अनशन पर बैठ गए. चूंकि गांधी भारतीय स्वंतत्रता आंदोलन के स्वाभाविक और स्वीकृत नेता थे, ऐसे में अंबेडकर को न सिर्फ़ गद्दार के तौर पर पेश किया गया बल्कि उन्हें जान की धमकियां भी मिलने लगीं.

Ministerpräsidentin des indischen Bundesstaates Uttar Pradesh Mayawati
वोट की राजनीतितस्वीर: Fotoagentur UNI

अंबेडकर इस तरह के दबावों का निजी रूप से अंबेडकर पर कोई असर नहीं हुआ, लेकिन राजनीतिक तकाज़ों को ध्यान में रखते हुए वह पृथक निर्वाचन की जगह संयुक्त निर्वाचन की व्यवस्था पर सहमत हो गए जिसके तहत आरक्षित सीटों की संख्या को बढाया गया. इस सहमति को पूना पैक्ट का नाम दिया गया. इस पैक्ट पर हस्ताक्षर कर अंबेडकर दलितों और शोषितों के सबसे प्रभावी और सर्वमान्य नेता बन कर उभरे.

शिक्षा, संगठन और संघर्ष

डॉ. अंबेडकर ने शोषितों के उत्थान के लिए तीन बिंदुओं वाला मूलमंत्र दिया. पहले शिक्षित बनो, फिर संगठित बनो और फिर अधिकारों के लिए संघर्ष करो. उनके अनुसार अधिकारों को हासिल करने का सबसे अच्छा माध्यम राजनीतिक ताकत है. उन्होंने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नाम से एक राजनीति दल बनाया और गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 के तहत प्रांतीय चुनावों में हिस्सा लिया. वह बॉम्बे विधानसभा के लिए चुने गए. उन्होंने खेतिहर बंधुवा मजदूरी को खत्म करने, मिलों में काम करने वाले मजदूरों के हड़ताल के अधिकार की रक्षा, जन्मदर के नियंत्रण पर खासा जोर दिया. इसके अलावा बॉम्बे प्रैजीडेंसी में बेशुमार सभाएं और बैठकों को संबोधित किया.

1939 मे दूसरा विश्व युद्ध छिड़ने पर अंबेडकर ने नाज़ी विचारधारा को भारतीय लोगों की आजादी के लिए खतरा बताया. इस लड़ाई में उन्होंने ब्रिटिश सरकार का समर्थन करने की अपील की और दलितों से भारतीय सेना में भर्ती होने को कहा. 1941 में डॉ. अंबेडकर डिफेंस एडवाजरी कमेटी के सदस्य बनाए गए और चार साल तक उस पद पर रहे. इसी दौरान उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को ऑल इंडिया शेडयूल कास्ट फेडरेशन में परिवर्तित कर दिया. साथ ही उन्होंने पीपल्स एजुकेशन सोसाइटी बनाई जिसने बहुत सी विवादास्पद पुस्तकें प्रकाशित कीं. इनमें थॉट ऑन पाकिस्तान, दलितों के लिए गांधी और कांग्रेस ने क्या किया और शूद्र कौन थे के नाम ख़ासतौर से लिए जा सकते हैं.

अंबेडकर और संविधान

1947 में आजादी के बाद पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने डॉ. अंबेडकर को अपनी सरकार में क़ानून मंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया. अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य पहले ही चुने जा चुके थे. कुछ ही हफ्तों बाद इस सभा ने संविधान का खाका तैयार करने की जिम्मेदारी पूरी तरह ड्राफ्टिंग कमेटी पर डाल दी. इस कमेटी के अध्यक्ष अंबेडकर ही थे. अगले दो साल अंबेडकर लगभग अकेले ही संविधान के मसौदे पर काम करते रहे. उन्होंने, धर्म, जाति, भाषा, रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव किए बिना व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विभिन्न वर्गों और समाजों के बीच सेतु बनाने पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया. वह मानते थे कि अगर वर्गों और समाजों के बीच की खाई को नहीं पाटा गया तो देश को एकजुट रखना मुश्किल होगा. ख़राब सेहत के बावजदू अंबेडकर ने 1948 के शुरुआत में मसौदा तैयार कर लिया. उसी साल उसे संविधान सभा में पेश किया गया. नवंबर 1949 में कुछ बदलावों के साथ संविधान को मंजूर कर लिया गया.

1951 में केंद्रीय मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र देने के बाद अंबेडकर का राजनीतिक जीवन लगभग समापन की ओर था. वह 1952 में न सिर्फ लोकसभा चुनाव में पराजित हुए बल्कि उसी साल उपचुनाव में भी उन्हें कामयाबी न मिल सकी. हालांकि बाद में वह राज्यसभा के लिए चुने गए. लेकिन अब वह राजनीति से दूर बौद्ध धर्म की तरफ खिंच रहे थे. हालांकि इसका संकेत उन्होंने 1935 में ही यह कहकर दे दिया था मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ हूं लेकिन हिंदू मरूंगा नहीं. वह दलितों के साथ सदियों से हो रहे भेदभाव और अमानवीय व्यवहार की मुख्य वजह हिंदू धर्म और उसकी सामाजिक व्यवस्था को मानते थे, इसलिए उसके कटु आलोचक भी थे.

बुद्धम शरणं गच्छामि

बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पहले अंबेडकर ने इसके अध्ययन और इसे जानने समझने के लिए बर्मा और श्रीलंका जैसे कई देशों का दौरा किया. 14 अक्टूबर 1956 को अपने 3 लाख 80 हज़ार अनुयायियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. इसके बाद वह नेपाल की राजधानी काठमांडू गए और वर्ल्ड फेलोशिप ऑफ बुद्धिस्ट के सम्मेलन में हिस्सा लिया. भारत लौटने पर वह बनारस के साथ साथ कुशीनगर में भी गए जहां गौतम बुद्ध ने अंतिम सांस ली.

6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में डॉ अंबेडकर का निधन हो गया. वह सिर्फ़ सात हफ़्ते बौद्ध रहे, लेकिन सम्राट अशोक के बाद पहली बार किसी ने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए इतना योगदान दिया. उनकी मृत्यु तक साढे सात लाख दलित बौद्ध धर्म अपना चुके थे. इसके बाद भी बहुत से दलितों ने बौद्ध धर्म का रास्ता चुना. लेकिन उनके जाने से वह आंदोलन दिशाहीन हो गया, जिसमें उन्होंने प्राण फूंके. लेकिन अपने संघर्ष की पूंजी को वह संविधान में संरक्षित कर गए.

अंबेडकर का विद्वत्ता और संघर्षों से भरा जीवन भारत के दलितों के लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत रहेगा और रहना भी चाहिए. लेकिन शायद हर बड़े नेता की तरह उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की बजाय आज उसका फ़ायदा उठाने वाले लोग ज़्यादा है.