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अतीत की खिड़की से झांकती यादें

१० अगस्त २००९

पिछले कई सालों से विश्वरत्न श्रीवास्तव भारत की आर्थिक नगरी मुंबई से आर्थिक, राजनीतिक और सबसे बढ़कर आतंकवाद संबंधित रिपोर्टिंग करते रहे हैं. याद कर रहे हैं डॉयचे वेले के साथ जुड़े अपने अनुभवों को.

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विश्वरत्न श्रीवास्तवतस्वीर: DW

डॉयचे वेले की हिंदी सेवा इस वर्ष स्थापना की पैंतालीसवीं वर्षगांठ मना रही है. इस अवसर पर ख़ुशी होना स्वाभाविक है. एक मंज़िल पर पहुंचने का गर्व भी होता है. इस तरह के अवसरों पर अक्सर अतीत की खिड़की से कुछ यादें झांकती हैं और उन पलों को जिंदा कर देती है, जिन्हें हम जी चुके हैं, जिन्हें छोड़ कर आगे बढ़ चुके हैं.

डॉयचे वेले के साथ मेरा संबंध लगभग आठ साल पुराना है. इस दौरान मुझे अपने पेशे और जीवन को करीब से जानने का अवसर मिला. यानी काम करते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा. डॉयचे वेले से जुड़ने से पहले मैं मुंबई के एक पत्रकारिता कॉलेज में शिक्षण- कार्य कर रहा था. रिपोर्टिंग कैसे करें ? यह सिखाना और समझाना आसान होता है. लेकिन असलियत यह है कि रिपोर्टिंग करते समय मुश्किलों से दो- चार होना पडता है. तब, समय के साथ संघर्ष होता है, प्रामाणिकता की दीवारों को दरकने से बचाना पड़ता है, और सबसे बड़ी बात, यक़ीन दिलाने की कला सीखनी पड़ती है.

Unruhen in Gujarat 2002
दंगे: पत्रकार की चुनौतीतस्वीर: AP

2002 के गुजरात दंगों और चुनाव के दौरान की गई रिपोर्टिंग ने मुझे सीखने का ऐसा अवसर दिया जो मैं किसी विश्वविद्यालय में नहीं सीख पाया था. सच और केवल सच बताना ही एक पत्रकार का धर्म होता है, ऐसा सोच कर(अति उत्साह में ) मैंने अपनी ऊर्जा नंगे और भयावह सच को जानने में झोंक दी. हिंदी विभाग के तब के प्रबंध सम्पादक राम यादव जी का मैं हमेशा आभारी रहूंगा, उन्होंने मुझे ऐसे किसी भी सच से दूरी बनाये रखने की सलाह दी,जो समाज में फूट का कारण बने. उज्ज्वल जी और महेश जी के सहयोग-स्नेह को भूल पाना भी आसान नहीं है.

अक्सर विदेशी प्रसारण संस्थाओं की नीयत पर उंगलियां उठाई जाती है. उन पर भारत विरोधी होने का आरोप भी मढ़ दिया जाता है. मुझे भी ऐसे कटु अनुभव होते रहते हैं, जब लोग, जर्मनी से हज़ारों मील दूर बैठे हिंदी भाषियों के लिए प्रसारण के औचित्य पर सवाल उठाते हैं. पहले तो उनको यह यक़ीन दिलाना ही कठिन होता है कि विदेशों से भी हिंदी भाषा में कोई कार्यक्रम प्रसारित होता है. प्रसारण के निहितार्थ के बारे में उनकी शंकाओं को दूर कर पाना और भी मुश्किल काम है. लोगों की इस सोच के कारणों को समझा जा सकता है, क्योंकि भारत में इन दिनों हिंदी के सम्मान में काफ़ी कमी आई है. गरीब की जोरू की तरह हिंदी भाषा के साथ बलात्कार होता है. हिंदी भाषियों में अपनी भाषा को लेकर कोई अनुराग भी नहीं है. ऐसे में, विदेशी प्रसारण केंद्रों का हिंदी-प्रेम संदेहों को जन्म देगा ही. डॉयचे वेले के संवाददाता के तौर पर मैंने लोगों के भ्रम को तोड़ने की कोशिश की है और समझाया है कि जर्मन प्रसारक होते हुए भी डॉयचे वेले ने भारतीय समाज के लिए चिंता और राष्ट्रीय एकता के ख़तरे को भांपने में दूरदर्शिता दिखाई है. मेरी कोशिश कितना रंग लाई, यह कह नहीं सकता.

समाज के लिए डॉयचे वेले की चिंता का प्रमाण देने का यह मंच नहीं है, लेकिन मैं अपने बारे में तो कुछ बता ही सकता हूं. मुझे ऐसा लगता है, डॉयचे वेले अपने हज़ारों मील दूर बैठे संवाददाताओं के प्रति सरोकार रखता है. अतीत की खिड़की से एक और याद बाहर आने को बेताब है: 2003 या 2004 में कभी (ठीक से याद नहीं) छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या पर एक फ़ीचर कर रहा था. नक्सलियों के प्रभाव वाले क्षेत्र से सकुशल-सुरक्षित वापसी के लिए मुझे अपनी पहचान साबित करनी थी. थोड़ी देर सोचने के बाद कोलोन फ़ोन किया. टामस बैर्टलाइन (उस समय हिंदी-उर्दू सेवा के प्रमुख ) ने ज़रूरी पत्र फ़ैक्स करने में कोई देरी नहीं की.

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मुंबई आतंकी हमलेतस्वीर: AP

नक्सली समस्या की तरह मुंबई पर आतंकी हमलों की रिपोर्टिंग आसान नहीं रही. मुंबई की लोकल ट्रेनों में जुलाई 2006 में हुए बम विस्फोटों और 26-11-2008 को सात अलग अलग जगहों पर हुए हमलों के बाद चारों तरफ़ दिल दहला देनेवाली तस्वीरें थीं. दोनों ही हादसे एक न भूलने वाली रात में तब्दील हो गए. ऐसे दृश्य देखने को मिले जिनके बाद क़लम को हाथ में थामना मुश्किल हो रहा था. सच कहता हूं, ऐसे मौक़ों पर आंख कुछ देखती है, दिमाग कुछ कहता है, और मन झुंझलाकर गौतम बुद्ध बन जाता है. विषाद के इन क्षणों को जीने के लायक मुझे पत्रकारिता ने ही बनाया.

जो है उससे बेहतर चाहिए

जिस हैसियत से मैं अपने अनु़भव आपसे साझा कर रहा हूं, उसका असली नाम यह होना चाहिए कि मैं, भारत में, डॉयचे वेले हिंदी का ऐसा संवाददाता हूं, जो श्रोताओं और स्टूडियो के बीच सेतु का काम करता है. संसाधनों की कमी इस काम को कभी-कभी मुश्किल और चुनौतीपूर्ण बना देती है. इस बात में कोई सन्देह नहीं कि तकनीकी प्रगति ने श्रोताओं तक पहुंचने के लिए सीधी-सपाट सड़क का निर्माण किया है. डॉयचे वेले प्रबंधन ने हर कमियों को दूर करने का प्रयास किया है. स्वयं को ,बदलते परिवेश के अनुसार ढाला है, 45 सालों की अनवरत यात्रा इसका प्रमाण है. डॉयचे वेले हिंदी, अब तक श्रोताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरता आया है. लेकिन जो अपेक्षाओं को पूरा करते हैं, उनसे अपेक्षाएं और बढ़ भी जाती है. इस समय हिंदी सेवा प्रिया एसलबॉर्न की युवा ऊर्जा से परिपूर्ण है और श्रोताओं की बढ़ी हुई उम्मीदों को पूरा करने के सक्षम भी.

अभी तो डॉयचे वेले हिंदी को, उपलब्धियों के हिमालय पर पहुचना है,

रास्ते में चुनौतियों से साक्षात्कार होगा। चढ़ाई के दौरान,

फिर किसी अगले पड़ाव पर आऊंगा, कहने अपनी बात ।

विश्वरत्न श्रीवास्तव, मुंबई