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शिक्षाभारत

एक के बाद एक विवादों में फंसता अशोका विश्वविद्यालय

चारु कार्तिकेय
२१ सितम्बर २०२३

अशोका विश्वविद्यालय लंबे समय से इस्तीफों को लेकर चर्चा में है. हाल में विश्वविद्यालय द्वारा बेल्जियम के राजनीतिक विश्लेषक जील वरनीर्स को नौकरी से हटा देने के बाद उनके केंद्र के बोर्ड के सभी सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया.

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अशोका विश्वविद्यालय, सोनीपत, हरियाणा
अशोका विश्वविद्यालयतस्वीर: Charu Kartikeya/DW

अशोका विश्वविद्यालय के 'त्रिवेदी सेंटर फॉर पोलिटिकल डाटा' के साइंटिफिक बोर्ड के सदस्यों ने एक खुले पत्र में लिखा है कि वरनीर्स को विश्वविद्यालय "छोड़ कर जाने के लिए मजबूर किया गया", इस बारे में बोर्ड को कुछ भी नहीं बताया गया और इस वजह से बोर्ड के सभी सदस्य मिल कर बोर्ड को ही भंग कर रहे हैं.

बोर्ड के सदस्यों में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, राजनीतिक विज्ञान के जाने माने विशेषज्ञ क्रिस्टोफ जाफ्रेलॉट और मिलान वैष्णव जैसे नाम शामिल हैं. बोर्ड के सदस्यों ने खुले पत्र में लिखा कि सेंटर के महत्वपूर्ण अजेंडा और वरनीर्स के नेतृत्व से आकर्षित हो कर ही उन सब ने केंद्र के बोर्ड की सदस्यता ली थी.

क्या है मामला

लेकिन उन्होंने खेद जताते हुए लिखा कि केंद्र के भविष्य को प्रभावित करने वाले इतने बड़े बदलाव करने से पहले बोर्ड के सदस्यों से सलाह नहीं ली गई और इस वजह से वह "आश्चर्यचकित और निराश" हैं.

दिल्ली में एक कॉलेज का क्लासरूम
भारत में बीते कुछ सालों से शैक्षणिक स्वतंत्रता को लेकर कई सवाल उठ रहे हैंतस्वीर: Naveen Sharma/Zumapress/picture alliance

उन्होंने बोर्ड को भंग करने की सूचना के साथ-साथ यह भी लिखा कि वह केंद्र के डाटा और उससे जुड़े काम के "भविष्य और शुद्धता" को बनाये रखने के वरनीर्स और उनके साझेदारों के प्रयासों को लेकर प्रतिबद्ध रहेंगे.

विश्वविद्यालय ने एक बयान में इन दावों का खंडन किया है और कहा है कि वरनीर्स पिछले एक साल से विश्वविद्यालय में पढ़ा ही नहीं रहे थे और अब उन्होंने खुद छोड़ कर चले जाने का निर्णय लिया. विश्वविद्यालय ने वरनीर्स के काम की सराहना भी की.

हालांकि अशोका विश्वविद्यालय से जुड़ा यह इस तरह का पहला विवाद नहीं है. संस्थान के नौ सालों के इतिहास में कई जानी मानी हस्तियों के छोड़ कर चले जाने और उससे जुड़े शैक्षणिक आजादी पर सवाल उठे हैं.

अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक संस्थान का सपना

हरियाणा सोनीपत स्थित अशोका विश्वविद्यालय की स्थापना 2014 में दुनिया के सबसे नामी विश्वविद्यालयों का मुकाबला करने के सपने के साथ हुई थी. इसके संस्थापकों में आशीष धवन, संजीव बिखचंदानी, अशोक त्रिवेदी, प्रमथ राज सिन्हा, स्वर्गीय राकेश झुनझुनवाला आदि जैसे नाम शामिल हैं.

धवन एक पूर्व प्राइवेट इक्विटी निवेशक हैं और बिखचंदानी उद्योगपति हैं जिन्होंने नौकरी डॉट कॉम, 99 एकर्स आदि जैसी वेबसाइटों को शुरू किया और पॉलिसीबाजार और जोमैटो जैसी कंपनियों में निवेश किया.

गांव से शिक्षा तंत्र को बदलने वाले गुरु डिस्ले

त्रिवेदी अमेरिकी आईटी कंपनी 'आईगेट' के संस्थापक हैं. और प्रमथ राज सिन्हा कंसल्टिंग कंपनी मैकिंजी के पूर्व पार्टनर, मीडिया समूह आनंद बाजार पत्रिका के पूर्व सीईओ और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के संस्थापक डीन हैं.

शुरुआती दिनों में विश्वविद्यालय की ख्याति एक नए और खुले विचारों का प्रोत्साहन करने वाले संस्थान के रूप में फैली, लेकिन जल्द ही विवादों का दौर शुरू हो गया. 2016 में प्रोफेसर राजेंद्र नारायणन और दो अन्य कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया.

उस समय कुछ मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया था कि उन तीनों ने बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर में हो रही हिंसा की निंदा करने वाली एक याचिका पर हस्ताक्षर किये थे, जिसके बाद उन्हें विश्वविद्यालय के प्रबंधन ने इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया. प्रबंधन ने इन आरोपों से इनकार किया था.

मार्च, 2021 में उप-कुलपति प्रताप भानु मेहता और अरविंद सुब्रमण्यन ने भी इस्तीफा दे दिया था, जिसके बाद एक बार फिर से विश्वविद्यालय पर शैक्षणिक स्वतंत्रता सुनिश्चित ना कर पाने के आरोप लगे थे.

शैक्षणिक स्वतंत्रता पर सवाल

अगस्त, 2023 में सहायक प्रोफेसर सब्यसाची दास के एक पेपर से विश्वविद्यालय के खुद को दूर करने के बाद दास ने संस्थान से इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने अपने पेपर में कहा था कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने अनुपातहीन रूप से कांटे की टक्कर वाली सीटों पर जीत दर्ज की थी.

दास के इस्तीफे के बाद प्रोफेसर पुलाप्रे बालाकृष्णन ने भी इस्तीफा दे दिया था और कई विभागों ने दास के समर्थन में बयान जारी किये थे. अभी यह विवाद ठंडा भी नहीं हुआ था कि वरनीर्स से संबंधित नया विवाद सामने आ गया.

कुछ मीडिया रिपोर्टों में दावा किया जा रहा है कि वरनीर्स ने अपने सेंटर के जरिये जारी किये डाटा से यह दिखाने की कोशिश की थी कि भारत में पिछले एक दशक में बीजेपी के बढ़ने के साथ साथ कथित अगड़ी जातियां राजनीति में हावी हुई हैं और पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधत्व गिरा है.

यह बीजेपी की समीक्षा से ठीक उलट है. पार्टी का दावा है कि वह कथित पिछड़ों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को भी अपने साथ जोड़ने में सफल हुई है. कई मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया है कि इसी अध्ययन की वजह से विश्वविद्यालय ने वरनीर्स पर दबाव बनाया.

खुद एसवाई कुरैशी ने 'द वायर' के एक लेख को रीट्वीट किया है. सोशल मीडिया पर कई लोगों ने विश्वविद्यालय की आलोचना की है. दिलचस्प है कि कुछ ही दिनों पहले बिखचंदानी ने एक्स (पहले ट्विटर) पर लिखा था कि विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों को छात्रों को "कैसे" सोचना है, यह सिखाना चाहिए, ना कि "क्या" सोचना है.

बिखचंदानी 'एक्स' के जरिये दिए गए अपने बयानों को लेकर काफी चर्चा में रहते हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने यह भी लिखा था कि मां-बाप बच्चों की फीस इसलिए नहीं भरते हैं कि बच्चे 'आंदोलन' करें.