1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

पाकिस्तान को हर जगह भारत ही दिखे है

२६ मार्च २०१०

अमेरिका और पाकिस्तान के बीच सामरिक महत्व की वार्ताओं के कारण जर्मन भाषी पत्रों का ध्यान इस बार पाकिस्तान पर कुछ अधिक ही रहा.

https://p.dw.com/p/MfIC
पाक-अमेरिकी सामरिक वार्तातस्वीर: AP

प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी अपने साथ सेनाध्यक्ष जनरल अशफ़ाक़ कयानी और गुप्तचर सेवा आएसआई के प्रमुख शुजा पाशा को लेकर वॉशिगटन पहुंचे थे. कहने को तो बतें हुयीं पाकिस्तान में पानी और बिजली की तंगी से लकर उस के सुरक्षातंत्र को मज़बूत करने तक के अनेक विषयों पर. पर बर्लिन के बर्लिनर त्साइटुंग का कहना है कि घूमफिर कर बात हमेशा भारत पर आकर ही टिक जाती थी. पत्र ने लिखाः

"पाकिस्तानी नेताओं की एक ही उत्कट कामना हैः अफ़ग़ानिस्तान में भारत के प्रभाव पर लगाम लगनी चाहिये. पाकिस्तानी जनरलों को इस बात से भी चिंता हो रही है कि नाटो अफ़ग़ानिस्तान के सैनिक और पुलिस बल को बढ़ा कर तीन लाख कर देना और उसे आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कर देना चाहता है. पाकिस्तान की चिंता उस समय को लेकर है, जब नाटो सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से चले जायेंगे. कयानी ने अंत में ख़ुद ही चेतावनी दी कि नाटो सैनिकों के चले जाने का नतीजा तब पाकिस्तान को अकेले ही भुगतना पड़ेगा, जब अफ़ग़ान सेना दुबारा बिखरने लगेगी और आधुनिक हथियारों से भरा हुआ वह देश अरजकता की गर्त में गिरने लगेगा."

असली इरादा

पाकिस्तान की बदनाम गुप्तचर सेवा आईएसआई ने पिछले दिनों तालिबान के बड़े नेताओं और कमांडरों की धरपकड़ के द्वारा नाम कमाने की जो नयी कोशिश की है, उस का अर्थ म्यूनिक का ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग यह लगाता है कि पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कसमसा रहा है. पत्र की टिप्पणी थीः

"गिरफ्तारियों के पीछे पाकिस्तान के असली इरादे अब सामने आने लगे हैं. यह, कि अमेरिका और उस के साथी देश वार्ताओं के लिए तैयार तालिबान वालों से अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए यदि कोई सौदा करते हैं, तो वह पाकिस्तान के माध्यम से ही होना चाहिये. तालिबान के साथ अपने पुराने भाईचारे के कारण पाकिस्तान के सैनिक अफ़सर उन्हें क्षेत्रीय वर्चस्व की होड़ में तुरुप का पत्ता मानते हैं. पाकिस्तानी सेना उस दिन के लिए तैयार रहना चाहती है, जब पश्चिमी देशों के सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से चले जायंगे. इस्लामाबाद में एक प्रेक्षक का कहना है कि पाकिस्तानी सेना की नज़र में उग्रवादी अपनी सत्ता बढ़ाने का एक ऐसा तत्व हैं, जिनसे पूरी तरह कभी बिगाड़ नहीं किया जाना चाहिये. आईएसआई के पूर्व प्रमुख हामिद गुल तो साफ़ साफ़ कहते हैं-- अमेरिका वाले अफ़ग़ानिस्तान में अब इतिहास हैं और तालिबान भविष्य."

नीति बदली नहीं

Taliban Mullah Abdul Salam Saif und Sohail Schaheen
तालिबान से पुराना भाइचारातस्वीर: picture alliance / dpa

जर्मनी की एक राजनैतिक विश्लेषण संस्था स्टिफ्टुंग फ्युअर विसेनशाफ्ट उंट पोलिटीक ने अपने पत्र में लिखाः

"पाकिस्तान में देखने में आयी गिरफ्तारी की लहर इस्लामाबाद की नीतियों में किसी बदलाव की सूचक नहीं है... ऐसा कोई सूचक तो उसे तब माना जाता जब मुल्ला उमर, जलालुद्दीन हक़्क़ानी या गुलबुद्दीन हेकमतयार जैसा कोई ऐसा नेता गिरफ्तार किया जाता, जो विद्रोहियों का आदर्श है. कहना मुश्किल है कि इन गिरफ्तारियों से तालिबान की सबसे महत्वपूर्ण संस्था, तथाकथित क्वेटा शूरा अपना काम करने में कितनी अक्षम बन गयी है."

भारत-पाक जनता में अब भी बहुत समनता

दैनिक फ्रांकफुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग को यह बात दिलचस्प लगी सारे राजनैतिक विवादों के बावजूद भारत और पाकिस्तान की जनता के बीच अब भी समानता की कितनी अधिक भावना है. उसका कहना थाः

"सीमा के दोनो ओर मीडिया साक्षात्कारों, व्यक्ति-परिचयों और सूचनाप्रद लेखों का एक अभियान यह दिखाने के लिए चला कि दोनो देशों के निवासी इसलिए एक-दूसरे को शक-संदेह से देखते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे के बारे में बहुत कम जानते हैं. बड़े शहरों में संगीत कार्यक्रमों तथा पत्रकारों और लेखकों के साथ वाद-विवाद को ज़बर्दस्त प्रतिध्वनि मिली. ग़ज़ल संध्याओं जैसे कार्यक्रम लोगों को निकट लाते हैं. जयपुर में हुआ पांचवां साहित्य महोत्सव पाकिस्तानी और भारतीय लेखकों-कवियों के लिए आपसी संवाद का एक सशक्त मंच साबित हुआ. जहां तक शांति लाने की सक्षमता का प्रश्न है, तो कहना पड़ेगा कि संस्कृति की पहुंच खेलकूद से कहीं आगे जाती है".

भारत की निजीकरण विवशता

आर्थिक पत्र हांडेल्सब्लाट का मानना है कि भारत सरकार सरकारी उद्यमों के निजीकरण को गंभीरता से ले रही है. वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी नये वित्तवर्ष में सरकारी उद्यमों के शेयरों की बिक्री से छह अरब 40 करोड़ यूरो के बराबर धन जुटाना चाहते हैं. पत्र ने लिखाः

METRO AG Duesseldorf
ड्युसलडोर्फ़ में मेट्रो मुख्यालय

"आर्थिक समझ से अधिक आर्थिक संकट भारत के वित्तमंत्री को सुधारवादी बना रहा है. प्रणब मुखर्जी को पैसा चाहिये. बजट घाटा सकल घरेलू उत्पाद के सात प्रतिशत से अधिक हो गया है. सरकार बचत करने के बदले ग़रीबी दूर करने और देश की आधारभूत संरचनाओं के निर्णाण में निवेश करने की विवशता देखती है. बचत और निवेश की दुविधा ने ही प्रणब मुखर्जी को भारत का सबसे बड़ा निजीकरण कार्यक्रम तैयार करने के लिए बाध्य कर दिया."

मेट्रो का बढ़ता साम्राज्य

जर्मनी की मेट्रो व्यापार कंपनी ने पिछले वर्ष पहली बार यूरोप से अधिक एशिया में अपने स्टोर खोले. उस के नये स्टोरों की संख्या की दृष्टि में चीन 2006 में दूसरे नंबर पर और भारत पांचवें नंबर था. अगले तीन वर्षों में दोनो क्रमशः पहले और तीसरे नंबर पर पहुंच जायेंगे. इस पर फ्रांकफुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग का कहना थाः

"कारोबारी परामर्श देने वाली कंपनी मेकैंज़ी का अनुमान है कि भारत की जनसंख्या 2005 की तुलना में 2025 तक 30 प्रतिशत बढ़ जायेगी. उसका मध्यवर्ग इस अवधि में दस गुना और इस मध्यवर्ग की उपभोग क्षमता चार गुना बढ़ जायेगी. यह सब विदेशी कंपनियों के लिए भारत में फलने फूलने की असाधारण संभावनाएं देता है. खुदरा और थोक व्यापार करने वाली फ़र्मों को मेकैंज़ी की सलाह है कि वे भारत में अपने निवेश की योजनाएं बनाना शुरू करदें. सलाह देना तो आसान है, पर क्या भारत की दफ्तरशाही ऐसा होने भी देगी?"

संकलन- अना लेमान / राम यादव