हिंदी के अंतिम बड़े पत्रकार प्रभाष जोशी
६ नवम्बर २००९रात में लगभग एक बजे के आसपास यह ख़बर मिली, तो पहली प्रतिक्रिया स्तब्ध रहने की थी, क्योंकि मुझे ऐसी कोई आशंका नहीं थी कि प्रभाष जी इतनी जल्दी हमलोगों के बीच से चले जाएंगे. वे बीमार नहीं थे, कोई समस्या नहीं थी, सिवाय उनके जो इस उम्र में हो जाती हैं. इसके बावजूद वे इतना सक्रिय थे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में कि उनकी सक्रियता देखते ही बनती थी. बहुत ख़ुशी होती थी यह देखकर, कि वो इस बुरे समय में हस्तक्षेप करने वाले व्यक्ति बने हुए हैं.
मुझे लगता है कि हिंदी में जो 5-6 बड़े पत्रकार हुए हैं, उनमें प्रभाष जी का स्थान है और वे शायद हिंदी के अंतिम बड़े पत्रकार थे. राजेंद्र माथुर के बाद प्रभाषजी - और उसके बाद कोई नाम सामने नहीं आता. प्रभाष जी की पत्रकारिता अत्यंत हस्तक्षेपकारी पत्रकारिता थी. वह यथास्थिति के विरोध में थी, और यथास्थिति को बदलने वाली थी. आप उनसे असहमत हो सकते थे, लेकिन उनके हस्तक्षेप के प्रति हमेशा एक आदर उत्पन्न होता था. यह हस्तक्षेप की भूमिका और एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका उनमें हमेशा पाई गई. इस भूमिका का आभास और भान, इसकी ज़रूरत का अहसास उन्हें हमेशा बना रहा. जनसत्ता में इतने वर्षों तक पत्रकारिता करते हुए और अखबारों से बाहर भी जीवन के दूसरे क्षेत्रों में हस्तक्षेप करते हुए वे हमेशा एक जीवंत भूमिका बनाए रहे. और यही कारण है कि उनके संपादन में जनसत्ता हिंदी का सबसे अच्छा अखबार बन पाया.
कुछ ही समय पहले जब देश में चुनाव हुए, और उसमें अखबारों ने अपने कॉलमों को बेचा, राजनेताओं से पैसे लेकर उनकी ख़बरें छापीं, उसके बारे में प्रभाष जी ने बड़ा कठोर आलोचनात्मक रुख़ अपनाया. वह एक बड़ी बात थी. इस उम्र में जब आदमी भजन करने लगता है, या यथास्थिति के समर्थन में चला जाता है, उसकी धार कुंद हो जाती है, प्रभाषजी हमेशा अपनी धार को बनाए रहे. अंत तक उनकी धार कायम रही. इसलिए विश्वास नहीं होता कि प्रभाष जी चले गए.
6 दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उनके विचारों में, राजनीतिक दृष्टि में, उनके सामाजिक चिंतन में एक बड़ा बदलाव आया. उससे पहले प्रभाष जी एक 'अच्छे हिंदुत्व' के समर्थक थे. और अंत तक रहे वह, मैं क्यों हिंदू हूं या हिंदू होने का धर्म जैसी उनकी पुस्तकें इसके प्रमाण हैं. लेकिन एक अच्छे, सहिष्णू और दूसरे धर्मों को बराबर आदर देने वाले एक हिंदू के तौर पर उनके चिंतन का विकास हुआ. इसलिए जब इस देश की एक बहुत बड़ी आबादी के साथ विश्वासघात करते हुए 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाई गई, तो प्रभाषजी अत्यंत विचलित हो उठे. उसके बाद से उनके सामाजिक-राजनीतिक चिंतन में बड़ा बदलाव आया, और उन्होंने कट्टर हिंदुत्व के खिलाफ़ मोर्चा संभाला. इस मोर्चे पर वे अंत तक डटे रहे.
(मंगलेश डबराल के साथ डॉएचे वेले की बातचीत के आधार पर)
संपादन: उज्ज्वल भट्टाचार्य